चुनौतियों के बीच चुनाव एक मिसाल

विभूती नारायण राय, (पूर्व आईपीएस अधिकारी)
अपनी भौगोलिक, भाषिक और सांस्कृतिक विविधताओं के चलते भारतीय चुनाव दुनिया भर के पर्यवेक्षकों के लिए हमेशा उत्सुकता के विषय रहे हैं। ब्रिटिश राजनेता चर्चिल शांतिपूर्ण तरीकों से अपनी सरकारें चुनने को लेकर भारतीय क्षमता के प्रति इतना आशंकित था कि वह मानता था कि अंग्रेजों के जाते ही यहां खून की बारिशें होंगी, पर ऐसा कुछ हुआ नहीं। देश के पहले निर्वाचन आयुक्त सुकुमार सेन ने पहला आम चुनाव जल्दी कराने की प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की जिद पूरा करने के रास्ते में जिन बाधाओं का जिक्र किया था, उनमें से एक बाधा का उल्लेख ही उनके सामने पहाड़ की तरह खड़ी समस्याओं को समझने में मददगार होगा।
चुनाव के लिए सबसे जरूरी मतदाता सूची की तैयारी को लेकर निर्वाचन आयोग की समझ तब गड़बड़ा गई, जब उन्होंने पाया कि एक क्षेत्र में कई सौ महिलाओं ने अपने पति का एक ही नाम लिखवाया था। इसके पीछे शिक्षा के अभाव के साथ-साथ वह सामाजिक परंपरा भी थी, जिसके तहत महिलाएं अपने पतियों का नाम नहीं लेती थीं। एक ने पति का नाम पूछने पर किसी प्राकृतिक अवयव की तरफ इशारा किया और फिर बाद में आने वाली सभी सिर्फ वही के इशारे में सिर हिलाती गईं। दुर्गम भौगोलिक इलाकों वाले इतने विशाल देश में मतदान केंद्रों तक चुनाव कर्मियों को अपने साजो-सामान के साथ पहुंचाना, उनकी सुरक्षा का इंतजाम करना और फिर चुनाव समाप्त करा कर उन्हें वापस मुख्यालय लाना कितनी कठिन परीक्षा रही होगी, इसका तो आज अंदाज ही लगाया जा सकता है। यह एक बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी कि सतरह लोकसभाएं इस प्रक्रिया से चुनी गई हैं और यह भी कम उल्लेखनीय नहीं है कि हर चुनाव के बाद उत्तरोत्तर हिंसा की घटनाएं कम होती गईं। कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो आम तौर से चुनावी नतीजों को सभी पक्षों ने स्वीकार भी किया है।
आठ दशकों में पसरे इस चुनावी सफर की कोई भी कहानी अधूरी ही रह जाएगी, यदि भारतीय निर्वाचन आयोग का उल्लेख न किया जाए। पहले निर्वाचन आयुक्त सुकुमार सेन को चुनकर नेहरू जी लाए थे और अपनी सूझबूझ, मेहनत के बल पर उन्होंने एक ऐसी नींव डाली, जिसके बल पर वर्षों तक यह संस्था काम करती रही। स्वातंत्र्योत्तर भारत के शुरुआती दो दशक स्वप्नजीवी आदर्शों के दशक थे, पर साठोत्तरी भारत की कहानी सपनों से मोहभंग की कहानी है और इसके बहुत से असरात में से एक जीवन के हर क्षेत्र में बढ़ती हिंसा केरूप में दिखता है। चनाव भी क्रमशः बाहबल और धनबल का खेल चुनाव भी क्रमशः बाहुबल और धनबल का खेल होते चले गए। इनके लिए बदलते मूल्यों के साथ अक्षम और निष्क्रिय चुनाव आयोग मुख्य रूप से जिम्मेदार रहा। आयोग आमतौर से सत्ताधारी दलों की धांधलियों पर अपनी आंखें मूंद लेता था।
निराशा के इस घटाटोप में अचानक एक ऐसे देवदूत का मंच पर प्रवेश हुआ, जो नौकरशाही में अपने प्रदर्शन से बहुत प्रभावित नहीं कर पाया था, पर एक सांविधानिक पद पर बैठते ही उसने एक मृतप्राय संस्था को प्रासंगिक बना दिया। वह व्यक्ति थे टीएन शेषन (1990-96)। बड़बोले, उतावले और अतिरेकी शेषन ने जो जबरदस्त सुधार चुनावी प्रक्रिया में किए, उनसे दूरगामी परिणाम निकले। यह कहना तो सरलीकरण होगा कि शेषन के सुधारों के बाद चुनावों में बाहु और धन की भूमिका खत्म हो गई, पर यह जरूर हुआ कि खुलेआम बूथ लूटने और पैसा बांटने के बेशर्म बेशर्म दृश्य अब पहले जैसे नहीं दिखते। दलों के साथ सरकारी मशीनीरी में आयोग का भय भी बैठा, पर दुर्भाग्य से ये परिवर्तन व्यक्ति केंद्रित ही साबित हुए। तीन दशकों बाद धीरे-धीरे फिर चुनाव आयोग की भूमिका एक पक्षधर रेफरी की बनती जा रही है। यही कारण है कि शेषन और लिंगदोह जैसे आयुक्तों को छोड़ दें, तो शायद ही कोई जनता की स्मृति में बस पाया ।
चुनाव पुलिस और दूसरे सुरक्षा बलों के सदस्यों के लिए उबाऊ और थका देने वाली प्रक्रिया के साथ उनकी साख के लिए एक गंभीर चुनौती की तरह आते हैं। अब चुनाव कई महीनों में फैले सात-आठ चरणों में समाप्त होते हैं। इस प्रक्रिया में जवान यात्राओं में बुरी तरह से थक जाते हैं और बाद के चरणों में उनके मनोबल और क्षमता पर इसका प्रतिकूल असर साफ दिखता है। मगर लंबी अवधि में फैले चुनावों का फायदा यह होता है कि मतदान केंद्रों पर अधिक बल उपलब्ध हो जाता है, जिसके कारण अब बूथ लूटने जैसी घटनाएं अतीत की चीज बन गई हैं। अब मतदाताओं को बूथ पर नहीं, वरन उनके गांवों, कस्बों या रास्तों में आतंकित किया जाता है। मुझे याद है कि एक जिले के पुलिस अधीक्षक के रूप में जब मैंने अपने करियर के पहले आम चुनाव में पुलिस प्रबंध किया था, तब मेरे जिले में सभी मतदान केंद्रों पर तैनाती के लिए एक-एक पुलिस कांस्टेबल भी उपलब्ध नहीं था, उनकी कमी होमगार्डों और चौकीदारों से पूरी करनी पड़ी थी। आज स्थिति बहुत बदल चुकी है, आज अगर बूथ पर गड़बड़ी होती है, तो उसका साफ मतलब तंत्र की मिलीभगत ही अधिक है।
चुनावों के लिए जरूरी समता या समानता भरे मैदान का हमारे देश में सतरह लोकसभा चुनावों के बाद भी अभाव दिखता है। सत्ताधारी पार्टी दौड़ शुरू होने के पहले ही आगे खड़ी हो जाती है। चुनावी बॉन्ड की जानकारियों या निर्वाचन आयोग के फैसलों से भी यह स्पष्ट है।
इन सबके बावजूद इसे भारतीय मतदाता की प्रौढ़ता ही कहेंगे कि सारी गड़बड़ियों के बावजूद उसने अनेक बार सत्तारूढ़ पार्टियों को अपने मतदान के अधिकार से अपदस्थ किया है।आपातकाल के बाद का चुनाव इसका बड़ा उदाहरण है।

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