प्राचीन भारत के प्रमुख शिक्षा केन्द्र

तक्षशिला

वर्तमान पाकिस्तान के रावलपिंडी जिले में स्थित तक्षशिला, प्राचीन काल में गांधार राज्य की राजधानी थी। तक्षशिला का इतिहास अपने प्रसिद्ध शिक्षा केंद्र के कारण था। यहां पढ़ने के लिए दूर-दूर से छात्र आते थे, जिसमें राजा और आम लोग दोनों शामिल होते थे। सभी के साथ समान व्यवहार किया जाता था।

कोशल के राजा प्रसेनजित, मगध का राजवैध जीवक, सुप्रसिध्द राजनीतिविद चाणक्य, बौध्द विद्वान् वसुबन्ध आदि ने यही शिक्षा प्राप्त की थी। बौद्ध साहित्य से पता चलता है कि यह तीरंदाजी और वैधकीय शिक्षा के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध था। चाणक्य यहाँ के प्रमुख आचार्य भी थे। चंद्रगुप्त मौर्य ने अपनी सैन्य शिक्षा यहीं से प्राप्त की थी।

नालंदा

प्राचीन भारत के शिक्षा केंद्र में नालंदा विश्वविद्यालय का नाम सबसे उल्लेखनीय है। यह बिहार प्रांत की राजधानी पटना के दक्षिण में लगभग 40 मिलों की दूरी पर बड़गाँव नामक आधुनिक गाँव के पास स्थित था। सबसे पहले गुप्तकाल में यहां एक बौद्ध विहार स्थापित किया गया था। चीनी यात्री ह्वेनसांग लिखता है कि इसका संस्थापक शक्रादित्य (कुमार गुप्त) था, जिसने बौद्ध धर्म के तीन रत्नों के प्रति महान श्रद्धा के कारण इसकी स्थापना की थी।

शक्रादित्य का पहचान कुमारगुप्त प्रथम (415 – 455 ई० ) से की जाती है, जिसकी सुप्रसिध्द उपाधि महेन्द्रादित्य की थी। बुध्द्गुप्त तथागतगुप्त, बालादित्य तथा वज्र ने यहाँ एक – एक विहार बनवाया। हर्षवर्धन ने यहां एक ताम्रविहार बनवाया था। हर्षकाल तक आते- आते यह एक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के विश्वविधालय के रूप में विकसित हो गया।

यहां की इमारतों का निर्माण स्तूप और विहार वैज्ञानिक योजना के आधार पर किया गया था। विश्वविद्यालय में आठ बड़े कमरे थे और व्याख्यान के लिए तीन सौ छोटे कमरे थे। नालंदा की इमारतें भव्य और बहु-मंजिला थीं। हर्ष ने लगभग एक सौ गांव इसके निर्वाह के लिए दिया था। द्वारपाल के सवालों के जवाब देने के बाद ही नालंदा विश्वविद्यालय में प्रवेश होता था। यह एक तरह की प्रवेश परीक्षा थी, जिसमें 70 -80% उम्मीदवार फेल हो जाते थे। भारत के अलावा, अन्य देशों जैसे चीन, मलेशिया, तिब्बत, कोरिया, मध्य एशिया आदि के छात्र भी शिक्षा प्राप्त करने यहाँ आते थे।

18 महीने तक ह्रेनसांग ने यहां अध्ययन किया। ह्रेनसांग के समय, शिलाभद्र विश्वविद्यालय के कुलाधिपति थे। इत्सिंग ने यहाँ रहकर 400 संस्कृत ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ तैयार की थी। धर्मगंज नामक पुस्तकालय तीन शानदार इमारतों रत्नसागर, रत्नोदधि और रतनरंजक में स्थित था। विश्वविधालय का प्रशासन चलाने के लिए बौध्दिक और प्रशासनिक परिषदे थी। उन दोनों के ऊपर एक कुलपति था। विश्वविद्यालय का व्यय शासकों और अन्य दाताओं द्वारा प्रदान किए गए गांवों के राजस्व से चलता था।

ग्यारहवीं शताब्दी से पाल शासकों ने नालंदा के स्थान पर विक्रमशिला को राज्य संरक्षण देना शुरू कर दिया, जिससे नालंदा का महत्व कम हो गया। धीरे-धीरे नालंदा पर तन्त्रायण का प्रभाव बढ़ने लगा, जिसने इसकी प्रतिष्ठा को ठोस पहुंची। अंत में बारहवीं शताब्दी के अंत में मुस्लिम आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने इस विश्वविद्यालय को ध्वस्त कर दिया।

वल्लभी

वल्लभ, गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र में अधुनिक वल नामक स्थान पर स्थित है, जो पश्चिमी भारत में शिक्षा और संस्कृति का एक प्रसिद्ध केंद्र था। इस शहर की स्थापना मैत्रक वंश के शासक भट्टार्क ने की थी। यह हिनयानी बौद्ध धर्म की शिक्षा का मुख्य केंद्र था। यहां अध्ययन करने के लिए भारत के विभिन्न हिस्सों से लोग आते थे। यह उच्च शिक्षा का केंद्र था। ह्रेनसांग ने इस शहर की समृद्धि का वर्णन किया है, इसके अनुसार एक सौ बौद्ध विहार थे, जिसमें लगभग 6000 हीनयानी भिक्षु निवास करते थे। शहर 6 मील की परिधि में थी। इत्सिंग बताता है कि सभी देशों के विद्वान यहां एकत्र होते थे और विभिन्न सिद्धांतों पर शास्त्रार्थ करके उनकी सत्यता निर्धारित करते थे।

वल्लभ विश्वविद्यालय अपनी सहिष्णुता और बौद्धिक स्वतंत्रता के लिए विख्यात था। इत्सिंग के अनुसार, यहां के स्नातक प्रशासनिक पदों पर नियुक्त किए जाते थे। बौद्ध धर्म के साथ, न्याय, संवाद, साहित्य आदि विषयों में उच्च शिक्षा की भी अच्छी व्यवस्था यहाँ पर मौजूद थी। सातवीं शताब्दी के मध्य में, विश्वविधालय के प्रमुख आचार्य स्थिरमति तथा गुणमति थे।

विक्रमशिला

विक्रमशिला का महाविहार पाल नरेश धर्मपाल द्वारा स्थापित किया गया था, जिन्होंने यहाँ मंदिर और मठ बनवाए और उन्हें उदारतापूर्वक अनुदान दिया। विक्रमशिला विश्वविद्यालय में 6 महाविधालय थे। प्रत्येक में एक केंद्रीय हॉल और 108 शिक्षक थे। केंद्रीय कक्ष को विज्ञान भवन कहा जाता था। प्रत्येक महाविधालय में एक प्रवेश द्वार था। प्रत्येक द्वार पर, एक द्वारपंडित थे। द्वारपंडित द्वारा प्रवेश परीक्षा के बाद ही किसी छात्र को कॉलेज में प्रवेश करने की अनुमति दी जाती थी।

विश्वविधालय में अध्ययन के विशेष पाठ्यक्रम व्याकरण, तर्कशास्त्र, मीमांस, तंत्र विधिवाद आदि थे। आचार्य में दीपंकर श्रीज्ञान का नाम सर्वाधिक उल्लेखनीय है, जो इस विश्वविधालय के कुलपति थे। बारहवीं सदी में अभयांकर गुप्त यहाँ के आचार्य थे। अन्य विद्वानों में ज्ञानपाद, वैरोचन, रक्षित, जेतारी रत्नाकर, शांति, ज्ञानश्री, मित्र, रत्नवज्र तथागत आदि के नाम प्रसिध्द है। बाहरवीं सदी में लगभग तीन हजार विधार्थी यहाँ शिक्षा ग्रहण करते थे। इनमे अधिकांश तिब्बत के थे।

विश्वविद्यालय के प्रबंधन को चलाने के लिए मुख्य संध्यक्ष की देखरेख में एक परिषद थी। शैक्षिक प्रणाली 6 द्वारपंडितों की एक समिति द्वारा शासित थी। इस समिति के एक अध्यक्ष भी थे। कालांतर में विक्रमशिला विश्वविधालय की प्रशासनिक परिषद् नालंदा विश्वविधालय का भी कार्य देखने लगी। इस जगह के स्नातकों के अध्ययन के बाद, पाल शासकों द्वारा उपाधिया प्रदान किया जाता था। स्नातकों को पंडित कहा जाता था। महापंडित उपाध्याय और आचार्य क्रमशः उच्च डिग्री थे। 1203 ई. में, मुस्लिम आक्रमण बख्तियार खिलजी ने विक्रमशिला विश्वविद्यालय को ध्वस्त कर दिया और भिक्षुओं की सामूहिक हत्या कर दी। विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति शाकश्री भव्र कुछ अनुयायियों के साथ तिब्बत भाग गए।

अन्य शैक्षणिक केंद्र
अन्य शैक्षिक केंद्र पाल नरेश गोपाल के समय में ओदंतपुरी और जगदला में स्थापित किए गए थे। जगदल विश्वविद्यालय तंत्रिका शिक्षा का एक प्रसिद्ध केंद्र था, जहाँ कई विद्वान उभरे। इनमें विभूति चंद्रा, दानशिल, मोक्षकर गुप्त आदि बौध्द विद्वान् थे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Join Our Telegram