भारतीय संविधान की प्रस्तावना एवं विशेषताएं

भारतीय संविधान प्रस्तावना एवं विशेषताएं

भारतीय संविधान प्रस्तावना एवं विशेषताएं
किसी भी देश के संविधान की प्रस्तावना उस सरकार के सिस्टम को निर्धारित करने वाले सिद्धांतों और लक्ष्यों का मार्गदर्शन करती है। भारत के संविधान की प्रस्तावना न केवल व्यवस्था को संचालित करने वाले सिद्धांतों और लक्ष्यों का एक निर्देश ही नहीं है, बल्कि उन आदर्शों और मूल्यों का भी प्रतिबिंब है जो राष्ट्रवादी आंदोलन के दौरान उभरे।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना
भारत के संविधान की प्रस्तावना (प्रस्तावना) जवाहरलाल नेहरू द्वारा तैयार मसौदे की प्रस्तावना पर आधारित है। प्रस्तावना के आधार पर प्रस्तावना का मसौदा संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार बीएन राव द्वारा तैयार किया गया था। प्रख्यात न्यायविद् और संवैधानिक विशेषज्ञ एनए पालकीवाला ने प्रस्तावना को संविधान का परिचय पत्र कहा है।

प्रस्तावना का प्रारूप      

                   हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को : न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा, उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढाने के लिए, दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई0 को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”

नोट :- प्रस्तावना में 42 वे संविधान संशोधन 1976 द्वारा तीन नये शब्द ‘समाजवादी’, ‘पंथनिपक्ष’, और ‘अखण्डता’ को जोड़ा गया !

प्रस्तावना : संविधान के भाग के रूप में
प्रस्तावना संविधान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसमें उन सिद्धांतों और उद्देश्यों को शामिल किया गया है जो संविधान के निर्माताओं द्वारा तैयार किए गए थे। यह उन मूलभूत मूल्यों और दर्शन को दर्शाता है जो संविधान के आधार हैं, सुप्रीम कोर्ट ने बेरुबरी यूनियन (AIR 1960) के अभियोग में कहा कि, हालांकि प्रस्तावना संविधान निर्माताओं के दिमाग की कुंजी है, लेकिन ये संविधान का भाग नहीं है, केसवानंद भारती के मुकदमे में पिछले फैसले को बदलते हुए सुप्रीम कोर्ट ने प्रस्तावना को संविधान का हिस्सा घोषित किया। हालांकि, यह अदालत द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है। हालाँकि यह संविधान का एक हिस्सा है।

प्रस्तावना के मूल तत्त्व

भारतीय संविधान की प्रस्तावना(उद्देशिका ) में चार मूल तत्व निहित है :-

  • संविधान के अधिकार का स्रोत प्रस्तावना कहती है की संविधान की शक्ति का स्रोत ‘भारत के लोग’ है
  • भारत की प्रकृति प्रस्तावना के अनुसार, भारत एक संप्रभु समाजवादी पंथनिपक्ष लोकतांत्रिक व गणतांत्रिक राजव्यवस्था वाला देश है
  • संविधान के उद्देश्य प्रस्तावना में वे उद्देश्य प्रतिष्ठा है, जिन्हें संविधान स्थापित करना चाहता है और आगे बढ़ाना चाहता है
  • इसके अनुसार न्याय स्वतन्त्र समता, बंधुत्व संविधान के मूल उद्देश्य है
  • संविधान अंगीकरण की तिथि संविधान के लागु होने की तारीख 26 नवंबर 1949 का भी उल्लेख करती है

प्रस्तावना का महत्व

उच्चतम न्यायलय ने कई ऐसे निर्णय दिए है, जो प्रस्तावना के महत्व एवं उपयोगिता को प्रदर्शित करते है प्रस्तावना निम्नलिखित तीन उद्देश्यों को पूर्ण करती है

1. यह उस स्रोत कई ओर संकेत करती है, जिससे संविधान अपनी शक्ति प्राप्त करता है

2. यह संविधान द्वारा निर्धारित उद्देश्यों को अभिव्यक्त करती है

3. संविधान की स्वीकृति की तिथि संविधान के कुछ प्रावधानों की व्याख्या में उपयोगी है

प्रस्तावना की व्याख्या से सम्बंधित मत
प्रस्तावना का उपयोग मौलिक अधिकारों (केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य) की परिधि को निर्धारित करने और निर्देशक सिद्धांतों की परिधि (एक्सेल वियर बनाम भारत संघ) को निर्धारित करने के लिए किया जा सकता है।
भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित करने वाले संवैधानिक प्रावधानों का इस्तेमाल इसे समझाने के लिए किया जा सकता है। यह संशोधन की शक्ति पर भी अंकुश लगाता है। प्रस्तावना में वर्णित संविधान के उद्देश्य संविधान की मूल संरचना की घोषणा करते हैं।
केशवानंद भारती वाद में, इस सवाल पर विचार किया गया था कि क्या अनुच्छेद 368 के तहत संसद प्रस्तावना में भी संशोधन कर सकती है ? जिसके बाद अदालत ने फैसला दिया कि प्रस्तावना में संविधान के मूल तत्व शामिल हैं।
इसलिए, संशोधन के अधिकार का उपयोग इस तरह से नहीं किया जाना चाहिए कि मूल तत्वों को नुकसान पहुंचे। प्रस्तावना भारत को एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित करती है, संशोधन की शक्ति का इस तरह से उपयोग नहीं किया जाना चाहिए कि भारत एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य ही ना रह पाए।

मूल अधिकार

भारतीय संविधान के भाग iii (अनुच्छेद 12 -35) में मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है। हमारे संविधान द्वारा नागरिकों को मौलिक अधिकार दिए गए हैं। उनके अनुसार, राज्य किसी भी ऐसे कानून को लागू नहीं कर सकता है जो नागरिकों के अधिकारों को सिमित करता हो. यदि राज्य इस तरह के कानून को लागू करता है, तो न्यायपालिका इसे असंवैधानिक घोषित कर सकती है।

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि भारतीय नागरिक को दिए गए मूल अधिकार आबाद नहीं हैं और उन पर कई तरह के प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं, दूसरे अर्थ में यह कहा जा सकता है कि संविधान व्यक्ति की स्वतंत्रता और सामाजिक हितों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश करता है।

राज्य के निति निदेशक तत्व

भारतीय संविधान की एक अन्य विशेषता इसमें राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों का समावेश है। निर्देश सिद्धांतों का उल्लेख संविधान के भाग iv (अनुच्छेद 36 -51) में किया गया है। संविधान में उल्लिखित नीति निर्देशक सिद्धांत वे दिशा-निर्देश हैं जिनका नीति निर्धारण करते समय सरकार को पालन करना होता है। इन सिद्धांतों का उद्देश्य एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना और लोकतंत्र को एक सामाजिक और आर्थिक आधार बनाना है। मौलिक अधिकारों के विपरीत, निर्देशक सिद्धांतों को न्यायिक संरक्षण नहीं है। इसका मतलब यह है कि अगर राज्य इन सिद्धांतों का पालन करने में विफल रहता है, तो अदालत में इसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती है।

मौलिक कर्त्तव्य

भाग iv (A) संविधान के अनुच्छेद 51 (A) में नागरिकों की मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख है। इन कर्तव्यों को संविधान में 42 वें संशोधन, 1976 द्वारा जोड़ा गया था। उस समय, उनकी संख्या 10 थी, लेकिन 86 वें संविधान संशोधन अधिनियम 2002 द्वारा संविधान के अनुच्छेद 51 (A) में संशोधन करके एक नया अनुच्छेद (K) जोड़ा गया है. इसमें माता-पिता या अभिभावक द्वारा अपने 6 वर्ष से 14 वर्ष तक के बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए अवसर प्रदान करने का प्रावधान है। इस प्रकार इन मौलिक कर्तव्यों की संख्या 11 हो गई। इन मौलिक कर्तव्यों का मुख्य उद्देश्य नागरिकों को यह याद दिलाना है कि उन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रिया के कुछ नियमों और मान्यताओं का पालन करना है।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता
भारतीय संविधान एक स्वतंत्र न्यायपालिका के लिए प्रावधान करता है, जो यह सुनिश्चित करता है कि देश का शासन संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार चलाया जाता है। न्यायपालिका नागरिकों की स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों के रक्षक के रूप में कार्य करती है। यह राज्य सरकारों और केंद्र सरकारों के अधिकार क्षेत्र की सीमाओं को भी परिभाषित करता है।

आपातकालीन शक्ति

संविधान आपात परिस्थितियों से निपटने के लिए राष्ट्रपति को विस्तृत अधिकार प्रदान करता है.

संविधान में निम्नलिखित तीन प्रकार की आपात परिस्थितियों की कल्पना की गई है

प्रथम :- आतंरिक विद्रोह अथवा बाह्य आक्रमण (अनुच्छेद 352 ) के कारण उत्पन होने वाला संकट

द्वितीय :- राज्य संवैधानिक तंत्र में विफल होने के कारण उत्पन्न होने वाला संकट (अनुच्छेद 360 )

तृतीया :- देश की अर्थव्यवस्था बिगड़ जाने अथवा उसकी साख को खतरा उत्पन्न होने का कारण उत्पन्न होने वाला संकट (अनुच्छेद 360 )

आपातकालीन स्थितियों में, केंद्र को इतनी शक्ति मिलती है कि संघीय व्यवस्था वास्तव में एकात्मक शासन का रूप ले लेती है। यह भारतीय संविधान की एक महत्वपूर्ण विशेषता है।

सत्ता का स्रोत भारत की जनता

यह भारतीय संविधान की एक विशेषता है कि भारतीय संविधान को भारत के लोगों के नाम से घोषित किया गया है और इसकी सारी शक्ति भी लोगों को प्राप्त है। यह प्रस्तावना से संविधान तक स्पष्ट है। प्रस्तावना में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि हम, भारत के लोग, “” “” “” इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियम और आत्मार्पित करते है.

एकल नागरिकता

यह भारतीय संविधान की एक अनूठी विशेषता है कि भारत का संविधान सभी नागरिकों को समान नागरिकता प्रदान करता है। ये नागरिक देश के किसी भी हिस्से में रहते हैं, लेकिन भारत के नागरिक माने जाते हैं और इन्हें समान अधिकार प्राप्त हैं। भारत में अलग-अलग राज्यों में रहने वाले व्यक्तियों के लिए अलग-अलग नागरिकता नहीं है। दुनिया के अन्य संघीय संविधानों में दोहरी नागरिकता दी गई है।

सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार

संविधान बिना किसी भेदभाव के सभी वयस्क नागरिकों को जिनकी आयु 18 वर्ष से अधिक है मतदान का अधिकार प्रदान करता है.

अल्पसंख्यकों के लिए विशेष प्रावधान

अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जातियों, जनजातियों आदि के लिए संविधान में विशेष प्रावधान किए गए हैं। इन वर्गों के लिए, न केवल संसद और राज्य विधानसभाओं में सीटें सुरक्षित हैं, बल्कि उन्हें विशेष अधिकार और सुविधाएं भी दी गई हैं।

विधि का शासन

विधि का शासन (rule of law ) भारतीय संविधान की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। यह धारणा ब्रिटेन से ली गई है। इसका मतलब है कि कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है। और सभी लोग अदालत के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। सभी व्यक्ति कानून के दृष्टिकोण से समान हैं।

पंचायती राज

भारत में केवल पंचायती राज व्यवस्था ही स्थापित नहीं की गई है बल्कि वर्ष 1992 में संविधान के 73 वें संशोधन द्वारा यह संवैधानिक रूप पंचायती राज को दिया गया था तो उसी वर्ष, 74 वें संवैधानिक संशोधन द्वारा, शहरी क्षेत्रों में स्थानीय निकायों को भी संवैधानिक रूप दिया गया।

सामाजिक राज्य

भारतीय संविधान ने प्रशासन के सामाजिक सिद्धांत को अप्रत्यक्ष महत्व दिया है। भले ही राज्य के निर्देशक सिद्धांत पूरी तरह से प्रमाणित समाजवादी प्रणाली की स्थापना नहीं करते हैं, लेकिन संविधान में समाजवादी उद्देश्य का उल्लेख अवश्य है। हालाँकि, वर्ष 1976 में पारित 42 वें संविधान संशोधन द्वारा, समाजवादी शब्द को संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया है जो संविधान के मूल रूप में नहीं था, जिसकी राजनीतिक प्रशासनिक प्रणाली के तहत, पूरे समाज को व्यक्ति की तुलना में विकास का समान अवसर दिया जाता है।

पंथनिरपेक्ष राज्य

भारतीय संविधान एक पंथनिरपेक्ष राज्य घोषित करता है। पंथनिरपेक्ष शब्द को संविधान की प्रस्तावना में जोड़कर 1976 में 42 वें संविधान संशोधन द्वारा इस परिप्रेक्ष्य में स्थिति स्पष्ट की गई है। पंथनिरपेक्ष राज्य का मतलब है कि राज्य सभी धर्मों की समान रूप से रक्षा करेगा और किसी भी धर्म को राज्य के धर्म के रूप में नहीं मानेगा। भारत के नागरिकों को किसी भी धर्म में विश्वास करने और उसका पालन करने और उसका प्रचार करने का अधिकार है। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि संविधान नागरिक को असीमित धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान नहीं करता है और इस स्वतंत्रता को जनहित में नियंत्रित किया जा सकता है।

एकीकृत न्यायपालिका
भारतीय संविधान की एक अन्य महत्वपूर्ण विशेषता एकीकृत न्यायपालिका की संरचना है। जिसके शिखर पर सर्वोच्च न्यायालय है। सुप्रीम कोर्ट के तहत, राज्य स्तर पर उच्च न्यायालयों की व्यवस्था की गई है। उच्च न्यायालय के अधीन अन्य न्यायालय है। देश में स्थापित एकीकृत न्यायालय केंद्र और राज्य दोनों के कानूनों को लागू करता है। यह प्रणाली अमेरिका की न्यायिक प्रणाली से पूरी तरह से अलग है। संयुक्त राज्य अमेरिका में, संघीय अदालतें संघीय कानून लागू करती हैं और राज्यों के कानूनों को लागू करने की जिम्मेदारी राज्यों की अदालतों के साथ टिकी हुई है।

भारतीय संविधान पर अन्य देशों का प्रभाव

ब्रिटेन

  • संसदीय व्यवस्था
  • कानून का शासन
  • विधि निर्माण की प्रक्रिया
  • एकल नागरिकता
  • द्वि -सदनीय व्यवस्था

अमेरिका

  • प्रस्तावना 
  • न्यायपालिका की स्वतंत्रता
  • न्यायिक पुनर्विलोकन
  • मौलिक अधिकार
  • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के पद से हटाने की व्यवस्था
  • राष्ट्रपति एक प्रमुख कार्यकरी अध्यक्ष
  • उप-राष्ट्रपति उच्च सदन का पदेन सभापति

आयरलैंड 

  • राज्य के निति – निदेशक सिध्दांत
  • राष्ट्रपति का निर्वाचन
  • उच्च सदन के सदस्यों को मनोनीत करने सम्बन्धी प्रावधान

जर्मनी

  • आपातकालीन

कनाडा

  • एक सशक्त केंद्र वाली संघीय व्यवस्था
  • शक्तियों का विभाजन तथा शेष शक्तियों केंद्र सौंपना
  • केंद्र द्वारा राज्यपाल की नियुक्ति
  • सर्वोच्च न्यायालय की परामर्श सम्बन्धी शक्तियाँ

आस्ट्रेलिया

  •  समवर्ती सूचि
  •  व्यापार तथा गाणिज्य से सम्बंधित प्रावधान

दक्षिणी

  • संविधान में संशोधन
  • राज्य के सदस्यों का निर्वाचन

फ्रांस

  • गणराज्य व्यवस्था
  • स्वतंत्रता समानता एवं बंधुत्व सम्बन्धी आदर्श

रूस          

  •  मौलिक कर्त्तव्य
  •  न्याय सम्बन्धी आदर्शों को प्रस्तावना में सम्मिलित करना
  •  संघीय व्यवस्था
  •  राज्यपाल का पद
  •  संघीय न्यायपालिका की शक्तियाँ

नोट :- यह ध्यान देने योग्य बात है की इन लक्षणों में देश की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए अनेक परिवर्तन किए गए है !

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