” साम्प्रदायिकता, धार्मिक कट्टरता और स्वार्थपरक राजनीति एक ही खेत के चट्टे-बट्टे है ” पर 700 से 800 शब्दों में निबंध लिखें

साम्प्रदायिकता से अभिप्राय है । दो सप्रदायों के मतावलम्बियों के बीच परस्पर सौहार्द्र विद्वेष की भावना से जब कोइ आदमी किसी संप्रदाय के पक्ष में बोलता है तो लोग उसे भी साम्प्रदायिक या सम्प्रदायवादी कहते हैं और जब कोइ आदमी किसी संप्रदाय के विरोध में बोलता है तो वह भी लोगों की दृष्टि में साम्प्रदायिक या सम्प्रदायवादी है । सम्प्रदाय से संबधित बातों को साम्प्रदायिक बातें कहते हैं ।

जब एक धर्म या सम्प्रदाय के अनुयायी अपने ही धर्म को सबसे अच्छा समझते हैं और दूसरे धर्म के अनुयायियों के प्रति विद्वेष की भावना रखते हैं तब उसे साम्प्रदायिकता कहते हैं । साम्प्रदायिकता किसी भी देश या समाज के लिए अत्यंत घातक होती है । इससे देश की आर्थिक प्रगति तो रुकती ही है, देश की अखंडता भी खतरे में पड़ जाती है । इतिहास इस बात का साक्षी है की हमारे अखंड भारत का बंटवारा इसी साम्प्रदायिकता रुपया राक्षस की दें है ।

पांच सौ वर्षों के भारतीय इतिहास के अवलोकन से यह ज्ञात होता है की भारत में साम्प्रदायिकता का बीज शासकों द्वारा बोया गया । वे इस्लाम धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु दूसरे मतावलम्बियों पर जोर-जबरदस्ती करने लगे । इस्लाम धर्म को न स्वीकार करने पर दीवारों में चुनवाने तथा तलवार के घाट-उतारने जैसे कुकृत्य अपनाये गए ।इससे साम्प्रदायिकता को बढ़ावा मिला और हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बीच खाई बढ़ी । इस मौके का फ़ायदा उठाकर अंग्रेज यहां के शासक बन बैठे । उन्होंने भी अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए हिन्दूओं तथा मुसलामानों में एक दूसरे के प्रति धार्मिक विद्वेष को बढ़ावा दिया । इस प्रकार साम्प्रदायिकता की भावना तेजी से बढ़ी । इसी अस्त्र के सहारे अंग्रेज लगभग 200 वर्षों तक निष्कण्टक शासन करते रहे । जाते-जाते भी अंग्रेजों ने साम्प्रदायिकता रूपी बाणों से भारत के शरीर को वैध दिया । फलतः आजादी मिलाने के साथ-साथ चारों ओर साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे और देश का विभाजन हुआ ।

पाकिस्तान में बेस लाखों अल्पसंख्यक हिन्दू बेघर हो गए । भारत में भी नोआखाली और तारापुर में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे । इन दंगों में जान-मॉल की अपूरणीय क्षति हुई । इतना ही नहीं, साम्प्रदायिकता-रुपया राक्षस ने अबोध बच्चों तक को नहीं बख्शा । अतः साम्प्रदायिकता मानवता के नाम पर कलंक है ।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत को एक धर्म – निरपेक्ष राज्य घोषित किया गया । इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति किसी भी धर्म को अपनाने और पूजा-पाठ करने में राष्ट्र की ओर से स्वतन्त्र है । इतना होएं पर भी हमारे देश में विभिन्न धर्मों के लोगों में सौहार्द्र का अभाव है । अब भी जगह-जगह साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठाते हैं यथा हिन्दू-मुसलमान के बीच, शिया-सुन्नी के बीच, अकाली-निरंकारी के बीच, हिन्दू-सिख के बीच आदि ।

समाज में तथाकथित मौलवी और पंडित धर्म के ठेकेदार बने हुए हैं । ये अपने स्वार्थ के लिए समाज के सामने धर्म की गलत व्याख्या प्रस्तुत करते हैं । फलतः मंदिर और मस्जिद, जो सौहार्द्र के प्रतीक हैं, कटुता का विषवमन करने लगते हैं । यह तो सत्य है की धर्म और राजनीति दोनों दो चीजें हैं । डॉ० राम मनोहर लोहिया ने बिलकुल ठीक कहा है- ‘राजनीती अल्पकालीन धर्म है और धर्म दीर्घकालीन राजनीति ।’ धर्म और राजनीति के क्षेत्र अलग-अलग है । अगर साम्प्रदायिकता का समावेश धर्म और राजनीति के कुत्सित मिलान देश में नहीं हो गया है तो धर्म के ठेकेदार संसद में क्यों आ गए हैं और वे संसद में बैठकर मंदिरों और मस्जिदों को लड़ाने का षड्यंत्र करते हैं । अब तो यह हाल है की हमारे देश में साप्रदायों और धर्मों के आधार पर राजनीतिक दल बनाये जा रहे हैं । इन दलों के नेता अपने निजी स्वार्थों की पूर्ती के लिए भोली-भाली जनता को साम्प्रदायिकता की आग में झोंकते हैं ।

आज साम्प्रदायिकता को दूर करने के ले सम्प्रदायों के आधार पर होने वाली राजनीति पर कानूनी प्रतिबन्ध लगाने की जरुरत है । धर्म की समाज में सही व्याख्या देने की जरुरत है । वह धर्म जो साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दे धर्म नहीं, अधर्म है । राम-रहीम, अल्लाह-ईश्वर में कोइ भेद नहीं है । कोइ भी मजहब आपस में बैर-भाव रखना नहीं सिखाता है । सभी धर्मों का सार ‘वसुधैव कटुम्बकम’ ही है । धर्म के इन सुविचारों को समाज में स्थापित करने की जरुरत है जिससे साम्प्रदायिकता के विष से निजात मिल सके । तभी सांप्रदायिक सद्भाव का विकास हो सकता है ।

यह कदापि संभव नहीं है की देश में जातिवाद का पोषण होता रहे और वैसे लोगों के प्रयास से धर्म और सम्प्रदाय का भेद-भाव समाप्त हो जाय । जातिवाद प्रकारांतर से सम्प्रदायवाद ही है जो जातिवादी नहीं होगा वह सम्प्रदायवादी भी नहीं होगा । जो जातिवादी होगा वह सम्प्रदायवादी होगा ही । हमारे देश में यह छद्मवेश धारण किया गया है की इधर नेतागण जाती-पाँति में समाज को छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँट भी रहे हैं और उधर साम्प्रदायिकता के विरोध में समाज को ढपोलशङ्खी बातें भी कर रहे हैं । यह तो वही बात हुई की हम छोटी-छोटी चीजें चुरा लेते हैं, बड़ी चीजों की चोरी में हाथ कहाँ लगाते हैं या दूसरे शब्दों में इसे ही कहते हैं ‘गुड़ खाये गुलगुलों से परहेज’ ।.हतम हम चोर नहीं हैं क्योंकि तुच्छ और कम कीमती चीजें चुराते हैं ।

साम्प्रदायिकता के संबंध में यही कहा जा सकता है की देश के सभी राजनीतिक दल के नेता साम्प्रदायिकता के बल पर ही सत्ता में आने के लिए कसरत करते रहते हैं और पाक-साफ़ कहलाने के लिए साम्प्रदायिकता के विरोध के नामा पर झूठा प्रलाप करते  हैं । अभी निकट भविष्य में भारत में साम्प्रदायिक विद्वेष घटने के आसार नहीं दिखते हैं ।

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