पारिस्थितिकी – Ecology

पारिस्थितिकी – Ecology

किसी किसी विशेष जन्तु/जाति का वातावरण के साथ अनुकुलन पारिस्थितिकी कहलाता है। पारिस्थितिकी शब्द का प्रयोग सबसे पहले अर्नेस्ट हेकेल ने किया।

पारिस्थितिक तंत्र शब्द सबसे पहले ए. जी. टैन्सले दिया था।

पारिस्थितिक तंत्र का दो घटकों में बांटा जा सकता है।

 

1. जैविक घटक

उत्पादक

उपभोक्ता

अपघटक

2. अजैविक घटक

वायु

मृदा

प्रकाश

तापमान

उच्चावच

जल

आर्द्रता

खनिज तत्व

उत्पादक

हरे पेड़ पौधे, नील-हरित शैवाल, सायनोबैक्टीरिया

प्रकाश संश्लेषण द्वारा भोजन का उत्पादन करते हैं।

उत्पादक हमेशा स्वंयपोषी होते हैं।

उत्पादक को परिवर्तक तथा ट्रांसड्यूसर भी कहा जाता है।

श्वसन, प्रकाश संश्लेषण की विपरित प्रक्रिया है।

श्वसन में भोज्य पदार्थ का आक्सीकरण।

ग्लुकोज शरीर का ईंधन कहलाता है।

Glucose + O2 – CO2 + H2O + 38ATP

 

प्रकाश संश्लेषण

 

CO2 + H2O -(sun light)-> Glucose + O2

 

प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया में दो परिवर्तन होते हैं-

1. अकार्बनिक यौगिक को कार्बनिक में

2. सौर ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में

 

उपभोक्ता

प्राथमिक उपभोक्ता(शाकाहारी) – द्वितियक उपभोक्ता(मांसाहारी) – तृतीयक उपभोक्ता(उच्च मांसाहारी)

सर्वहारी – मांसाहारी + शाकाहारी(मनुष्य,कुत्ता)

उपभोक्ता को विषमपोषी या परपोषी भी कहा जाता है।

 

अपघटक

इसमें मृतोपजीवी, कवक और जीवाणु आते हैं।

अपघटक को रिड्यूसर्स, डीकंजोजर्स और ट्रांसफार्मर भी कहा जाता है।

 

खाद्य श्रंखला

एक जीव दुसरे से खाद्य व ऊर्जा के आधार पर जुड़ा होता है।

पोषक स्तरों को ट्राॅपिक स्तर कहा जाता है।

यदि मनुष्य बकरी का मांस खाता है तो उसका पोषक स्तर तीसरा है।

खाद्य श्रंखला लम्बी व छोटी हो सकती है।

खाद्य श्रंखला में न्युनतम दो पद आवश्यक है।

जितनी लम्बी खाद्य श्रंखलाएं होगी उतनी ही कम ऊर्जा क्रमिक पोषक स्तर तक पहुंचेगी।

ऊर्जा का प्रवाह सदैव एक दिशात्मक होता है।

 

खाद्य जाल

पारिस्थितिक तंत्र में खाद्य श्रंखलाएं आपस में एक दुसरे से जुड़ी होती है तथा एक तंत्र का निर्माण करती है, जिसे खाद्य जाल कहते हैं। खाद्या जाल में जीवों के पास वैकल्पिक व्यवस्था रहती है।

पारिस्थितिकी तंत्र में ऊर्जा का प्रवाह होता है तथा रासायनों का चक्रण(जैवभू रासायनिक चक्र) होता है।

 

ऊर्जा का प्रवाह

दशांश(10 प्रतिशत) का नियम लिण्डमैन ने दिया। जिसके अनुसार हर अगले स्तर पर ऊर्जा का क्षय होता है। अगले स्तर पर ऊर्जा का 10 प्रतिशत ही पहुंचता है। शेष ऊष्मा के रूप में उपयोग हो जाता है।

लंबी खाद्य श्रंखला में छोटी खाद्य श्रंखला की अपेक्षा ऊर्जा की उपलब्धता कम होती है।

दशांश के नियम के कारण ही खाद्य श्रंखलाओं की लंबाई सीमित होती है।

इसी के कारण शाकाहारी भोजन की अपेक्षा मांसाहारी भोजन से कम ऊर्जा मिलती है।

ऊर्जा के प्रवाह के लिए बोक्स एण्ड पाइप मोडल ई. पी. ओडम(1983) ने प्रस्तुत किया।

 

जैव सांद्रण

किसी भी रासायनिक पदार्थ के खाद्य श्रंखला में घुसना व इनकी सांद्रता हर ट्रापिक स्तर पर बढ़ना। कीटनाशक वसा में घुलनशील होते हैं, अतः यह जन्तुओं के वसीय ऊतक में संचित हो जाते हैं।

गिद्ध, गोडावन, मोर की संख्या कम होने का कारण जैव-सांद्रण ही है।

 

पारिस्थितिक पिरामिड्स

विभिन्न पोषक स्तरों के बीच संबंध को चित्र के द्वारा दर्शाना। सर्वप्रथम ने चाल्र्स एल्टन ने पारिस्थितिक पिरामिड्स की अवधारणा दी।

मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं –

1. जीव संख्या का पिरामिड(उत्पादक की संख्या ज्यादा)

सभी सीधे खड़ी अवस्था में केवल पेड़ पारितंत्र को छोड़ कर

2. जैव – भार/जैव मात्रा का पिरामिड

सभी सीधे खड़ी अवस्था में केवल तालाब/जल पारितंत्र को छोड़ कर

3. ऊर्जा का पिरामिड

सदैव खड़ी अवस्था में कारण – 10 प्रतिशत का नियम

 जैव सांद्रण के पिरामिड

सदैव उल्टे पिरामिड बनते है।

महत्वपूर्ण तथ्य : 

  • अजैविक घटक जैविक घटक को प्रभाविक करता है
  • भूमध्यरेखा से ध्रवों की ओर जाने पर जैवविविधता घटती है।
  • सर्वाधिक जैवविविधता, भूमध्यरेखा अथवा उष्णकटिबंध वर्षा वन में पायी जाती है।
  • जैवविविधता बाहुल्य क्षेत्रों को Hotspot कहा जाता है।
  • विश्व में 32 Hotspotहै। भारत में दो Hotspot है – 1. पश्चिम घाट 2. पूर्वी घाट
  • आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण वन कम जैवविविधता वाले होते हैं।
  • ऐक्वेरियम मानव निर्मित कृत्रिम पारिस्थितकी तंत्र है।
  • ई. ओडम को पारिस्थितिकी का पिता कहा जाता है।
  • प्रो. रामदेव मिश्रा को भारतीय पारिस्थितिकी का पिता कहा जाता है।
  • चमड़े से बाल व वसा को जीवाणुओं द्वारा अलग करना टेनिन कहलाता है।
  • फ्लोरीजन – पूष्पन को प्रेरित करता है।

 

जैव भू-रासायनिक चक्र

प्रकृति में विभिन्न तत्व चक्रीय रूप से एक जीव से दुसरे जीव में स्थानान्तरित होते हैं और पुनः प्रकृति में लौट जाते है, इस प्रक्रिया को खनिज प्रवाह तथा यह चक्र जीवमंडल(वायुमण्डल, स्थलमण्डल, जलमण्डल) में हाते हैं। इसे जैव भू रासायनिक चक्र कहते हैं।

नाइट्रोजन चक्र

नाइट्रोजन गैंस वायुमण्डल में 78 प्रतिशत पाये जाने के बावजुद न केवल पौधे बल्कि जन्तु भी इसे सीधे उपयोग में नहीं ला सकते हैं। वे नाइट्रोजन का उपयोग यौगिक रूप में ही कर सकते हैं। नाइट्रोजन तत्व को नाइट्रोजन के यौगिक में बदलने कि क्रिया को नाइट्रोजन का स्थिरीकरण कहते हैं।

बारिश के साथ बिजली चमकने पर वायुमण्डल में उपस्थित नाइट्रोजन आक्सीजन से क्रिया कर नाइट्रोजन के आक्साइड बनाती है जो वर्षा के साथ क्रिया कर नाइट्रिक अम्ल बनाते हैं जो पृथ्वी पर उपस्थित क्षारों से क्रिया कर लवण बनाते हैं जिन्हें पादप अवशोषित कर लेते हैं। तथा जिन्हें पादप प्रोटिक या अन्य कार्बनिक पदार्थ में बदल देते हैं। जब इन पौधों को जन्तु खाते हैं तो नाइट्रोजन जन्तुओं के शरीर में पहुंचती है। जन्तुओं या पादपों के अवशेष या मल के रूप में नाइट्रोजन यौगिक धरती में पहुंचते हैं जहां सूक्ष्म जीव उन्हें अपघटित कर पौधों के अवशोषण के योग्य बना देते हैं। कुछ जीव नाइट्रोजन यौगिक को नाइट्रोजन में बदल देते हैं जो पुनः वायुमण्डल में पहुंच जाती है। इस क्रिया को विनाइट्रीकरण कहते हैं।

दाल कुल/ फेबेसी कुल की जड़ों राइजोबियम लेग्यूमीनीसोरम नामक जीवाणु पाये जाते हैं जो नाइट्रोजन के स्थिरीकरण का कार्य करते हैं। बदले में जड़ों से खनिज लवण जल तथा आश्रय प्राप्त करते हैं।

फास्फोरस चक्र

फास्फोरस एक न्यूक्लिक अम्ल का प्रमुख रचनात्मक चक्र है तथा जीव-द्रव्य का एक महत्वपूर्ण घटक है। फास्फोरस का स्त्रोत पृथ्वी की चट्टानें, शैलें एवं अन्य ऐेसे निक्षेप हैं जो विभिन्न भू गर्भिक काल में बने। इन शैलों के अपरदन से फास्फेट मृदा में मिलता रहता है। इसकी पर्याप्त मात्रा समूद्र में होती है जो अनेक अवसादों में विलीन रहता है। मृदा से पौधे फास्फोरस ग्रहण करते हैं और तत्पश्चात यह जीवों तक पहुंचाता है। इन जीवों की मृत्यु के पश्चात् फास्फोरस अपघटित होकर पुनः घुलित अवस्था में बदल जाता है।जिसे मृदा सोख लेती है और फास्फोरस चक्र इस प्रकार निरन्तर चलता रहता है।

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