परिचय
‘घर का जोगी जोगना, आन गाँव का सिद्ध’ यह प्रसिद्ध हिंदी कहावत भारतीय समाज में अक्सर सुनने को मिलती है। इस कहावत का मूल अर्थ है कि अपने घर में या अपने समाज में व्यक्ति की उतनी कद्र नहीं होती जितनी कि बाहर के समाज में होती है। यह कहावत समाजिक व्यवहार और मानसिकता को उजागर करती है, जहाँ व्यक्ति का मूल्यांकन बाहरी स्थानों पर अधिक होता है जबकि अपने स्थान पर उसकी महत्ता कम आंकी जाती है।
कहावत का अर्थ और व्याख्या
‘जोगी’ एक साधु या तपस्वी को संदर्भित करता है, जो अपने तप और साधना के कारण विख्यात होता है। ‘जोगना’ का अर्थ होता है, एक साधारण व्यक्ति या ऐसा व्यक्ति जिसे महत्व नहीं दिया जाता। इस प्रकार ‘घर का जोगी जोगना’ का अर्थ हुआ कि अपने घर या स्थान पर तपस्वी को साधारण माना जाता है। वहीं, ‘आन गाँव का सिद्ध’ का अर्थ है कि वही व्यक्ति दूसरे गाँव या स्थान पर एक सिद्ध या सम्माननीय व्यक्ति माना जाता है।
इस कहावत का मुख्य उद्देश्य यह दिखाना है कि कई बार व्यक्ति की योग्यताएँ और काबिलियत अपने समाज या परिवेश में मान्यता नहीं पाती, जबकि बाहर के लोग उसकी कद्र करते हैं और उसे सम्मान देते हैं।
सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण
इस कहावत का समाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलू यह दर्शाता है कि इंसान अपने परिवार, समाज या परिचितों के बीच कम सम्मानित होता है क्योंकि लोग उसके गुणों और काबिलियत से परिचित होते हुए भी उसकी पुरानी छवि से बाहर नहीं निकल पाते। वहीं, बाहर के लोग उसे उसके कार्यों और गुणों के आधार पर ताजगी से परखते हैं और उसके महत्व को समझते हैं।
उदाहरण और प्रासंगिकता
ऐसे कई उदाहरण हमारे चारों ओर देखने को मिलते हैं। कई बार हम देखते हैं कि एक व्यक्ति अपने गाँव या शहर में खास पहचान नहीं बना पाता, लेकिन जब वह बाहर किसी अन्य स्थान पर जाता है, तो उसकी योग्यता और कार्यकुशलता को सराहा जाता है। उदहारण के तौर पर, एक शिक्षक अपने गाँव में सामान्य शिक्षक माना जा सकता है, लेकिन जब वह किसी अन्य शहर में जाकर अपनी शिक्षा और गुणों का प्रदर्शन करता है, तो उसे विशेष सम्मान मिलता है।
निष्कर्ष
‘घर का जोगी जोगना, आन गाँव का सिद्ध’ कहावत एक गहरा संदेश देती है कि हमें अपने परिवार और समाज में लोगों की योग्यताओं और काबिलियत को पहचानना चाहिए और उन्हें वही सम्मान देना चाहिए जो वे बाहर प्राप्त करते हैं। इस प्रकार की सोच से हम एक संतुलित और सम्मानजनक समाज का निर्माण कर सकते हैं जहाँ हर व्यक्ति को उसकी काबिलियत के अनुसार उचित मान्यता मिले। इस कहावत का सार यह है कि अपने और परायों के बीच भेदभाव न करते हुए, हर व्यक्ति को उसकी योग्यता और कार्यकुशलता के आधार पर उचित सम्मान देना चाहिए।